सर्दियों ने दस्तक दे दी है। हल्की धूप सुहानी लगने लगी है। मौसम के इस बदलाव के साथ शायद आपने ढेरों चहकते फुदकते पक्षियों को भी अपने आसपास देखा होगा, जो कुछ दिन पहले तक दिखाई नहीं दे रहे थे। अगर आप सुबह किसी खुली जगह पर खड़े होकर आसमान को देखें तो इन दिनों वहां अंग्रेजी के उलटे ' वी ' के आकार में उड़ती और शोर मचाती हुई सारसों ने आपका ध्यान आकर्षित किया होगा। आजकल नदियों और झीलों में तैरते हंस तथा बतख और टेलिफोन के तारों पर बैठी हुई ढेरों अबाबीलें भी नजर आती हैं।
यह अनोखी घटना हर वर्ष , सर्दियों में नियमित रूप से घटती है। अक्टूबर - नवंबर के महीने से हजारों की संख्या में विभिन्न प्रजातियों के पक्षी हमारे शहरों और गांवों में आने शुरू हो जाते हैं। अपने 5-6 महीने यहां बिताकर मार्च - अप्रैल तक वे अपने - अपने ठिकानों पर वापस चले जाते हैं। उनके शरद ऋतु में आने और फिर वसंत में चले जाने का यह सिलसिला सदियों से यूं ही चला आ रहा है। लेकिन सर्दियों में ही नहीं गर्मियों में भी कुछ पक्षी हमारे आसपास आकर चंद महीनों के लिए बस जाते हैं जो शीतकाल में नजर नहीं आते। जैसे वसंत के आते ही कोयल और पपीहे की बोली सुनाई पडऩे लगती है पर गर्मियों के ये पक्षी भी सर्दी आते ही चले जाते हैं। ये मौसमी पक्षी उन पक्षियों से भिन्न होते हैं जो सालों भर हमारे साथ रहते हैं मसलन कौआ, कबूतर, मैना, गौरैया आदि। मौसम परिवर्तन के साथ जो पक्षी आते-जाते रहते हैं वे प्रवासी पक्षी हैं जो किसी दूसरे क्षेत्र से हमारे इलाके में आते हैं। ऐसा सिर्फ हमारे यहां नहीं होता , हमारे इलाके के कुछ परिंदे भी दूसरे इलाकों में चले जाते हैं। भारत में विदेशों से लगभग 300 प्रजातियों के पक्षी सर्दी बिताने आते हैं। इनमें से ज्यादातर उत्तरी गोलार्द्ध के ठंडे इलाकों से आते हैं जैसे आर्कटिक वृत्त, पूर्वी, उत्तरी और मध्य यूरोप, दक्षिण-पश्चिम एशिया, रूस, साइबेरिया, हिमालय की पर्वत श्रेणियों, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान आदि से अंजन, अबाबील, ऑरफियन वारब्लर, हंस, राजहंस, गूज, बतख, सारस, क्रोंच, बगुला अबाबील आदि। पक्षियों का इस तरह का सालाना आगमन या पलायन मुख्य रूप से खाने की तलाश में होता है। जब इन्हें अपने मूल इलाकों में भीषण सर्दी, गर्मी, बरसात या सूखे के कारण भरपेट भोजन-पानी नहीं मिलता है, साथ ही मौसम भी असहनीय हो जाता है तो ये वहां से भाग कर किसी और लेकिन निश्चित इलाके में चले जाते हैं। प्रवासी पक्षी कुछ महीने वहां बिताकर, मनपसंद भोजन और सुहाने मौसम का आनंद उठा कर अपने घर लौट जाते हैं, तब तक वहां पर पुन: खाना मिलने लगता है और मौसम भी ठीक हो जाता है। जैसे साइबेरियाई पक्षी हर साल सर्दियों में दिल्ली और भरतपुर के उद्यानों में आ जाते हैं, क्योंकि साइबेरिया की प्रचंड ठंड के मुकाबले उन्हें यहां की सर्दी बर्दाश्त करने लायक और अनुकूल लगती है। इसके उलट गर्म क्षेत्रों के पक्षी गर्मियों में प्रवास करते हैं। वे ठंडे स्थानों में चले जाते हैं। जैसे दक्षिण भारत के अनेक पक्षी वहां की प्रचंड गर्मी और सूखे से बचने के लिए गर्मियों में उत्तरी प्रांतों में खास कर हिमालय के निकट आ जाते हैं तथा सर्दी आते ही वापस चले जाते हैं। कुछ पक्षी बरसात में भी गीले स्थानों से सूखे क्षेत्रों में चले जाते हैं। वैसे सभी पक्षी प्रवास नहीं करते हैं।
उन्हीं क्षेत्रों के पक्षी प्रवास करते हैं जहां मौसम परिवर्तन के साथ तापमान, जलवायु, तथा खाद्य-सामग्री की आपूर्ति पर असर पड़ता है और ऐसी प्रतिकूल दशाएं उत्पन्न हो जाती हैं कि यदि वे प्रवास न करें तो जीवित ही न बचें। यही वजह है कि टुंड्रा , अंटार्कटिका तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों के अधिकांश पक्षी अनिवार्यत: प्रवास करते हैं। कुछ पक्षी प्रजनन के लिए भी प्रवास करते हैं। वे उन स्थानों पर चले जाते हैं जहां पर उनके अंडे और बच्चे सुरक्षित रह सकें। अपने चूजों के उडऩे लायक हो जाने पर वे फिर अपने घरों में वापस लौट आते हैं। इन पक्षियों में प्रवास की प्रवृत्ति जन्मजात होती है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी इसे सहज ही प्राप्त कर लेती है। मसलन जर्मनी के स्टॉर्क अक्टूबर में अफ्रीका जाते हैं, यदि कोई नवजात रास्ता भटक जाता है तो वह स्वयं सही ठिकाने पर पहुंच भी जाता है जबकि 4-5 माह के नन्हे स्टॉर्क को मार्ग की कोई जानकारी नहीं होती हैं क्योंकि वह पहली बार 6,400-11,000 किलोमीटर की प्रवास यात्रा पर जा रहा होता है। प्रवासी पक्षियों की यात्राएं कुछ सौ किलोमीटर से लेकर हजारों किलोमीटर तक की हो सकती हैं। आर्कटिक टर्न प्रवास के दौरान आर्कटिक यूरोप से अंटार्कटिका जाती है और इस दौरान वह एक तरफ से लगभग 17,600 किलोमीटर की यात्रा करती है। वहीं पहाड़ों के पक्षी कुछ किलोमीटर ही उड़ कर नीचे तलहटी में आ जाते हैं।
प्रवास यात्राएं बड़ी ही नियमित होती हैं यानी सर्दी और गर्मी के ठिकानों पर पहुंचने का समय, यहां तक कि कभी - कभी तारीख़ तक तय रहती है। कैलिफोर्निया स्थित सेन जुआन कैपिस्ट्रानों के एक चर्च में रहने वाली क्लिफ स्वालो ठीक 23 अक्टूबर को सेन्ट जॉन डे पर सर्दी बिताने के लिए दक्षिण की और जाती हैं और ठीक 19 मार्च को सेन्ट जोसेफ डे पर अपने पुराने घोंसलों में लौट आती हैं। इसी तरह दिल्ली के चिडिय़ाघर में अन्य प्रांतों से जगिंल नाम की चिडिय़ा प्रजनन के लिए ठीक 14 अगस्त को पहुंच जाती है।
मुंबई के शिवडी क्रीक में हर साल जनवरी के पहले हफ्ते में गुजरात के राजहंस डेरा डाल लेते हैं। इसके अलावा हर वर्ष सर्दी और गर्मी बिताने के लिए बिना भटके ये अपने पुराने ठिकानों पर ही पहुंचते हैं। यह ठिकाना कोई छोटी नदी, तालाब या कोई खास पेड़ भी हो सकता है। आश्चर्य की बात यह है कि प्रवास के दौरान हर बार वे एक ही मार्ग लेते हैं और यह वही मार्ग होता हैं जो सदियों पहले उनके पूर्वज भी लिया करते थे। यह मार्ग भी शायद कई तथ्यों पर गौर करने के बाद ही निर्धारित किया जाता है। मसलन रास्ते में सुरक्षा , भोजन की उपलब्धता, हवा का दबाव और बहाव। पक्षियों द्वारा लिए गए इन मार्गों को प्रभावित करती हैं पर्वतमालाएं, समुद्र, नदियां और चौड़े संकरे वायु मार्ग, पक्षियों की पसंद नापसंद। यह जरूरी नहीं है कि पक्षी प्रवास पर जाते और लौटते समय एक ही मार्ग लें। कुछ पक्षियों को समुद्रों के ऊपर से उडऩे में मजा नहीं आता है तो कुछ को मरुस्थल लुभाते हैं। कुछ सरल मार्ग न लेकर जटिल रास्ते चुनते हैं। साथ ही वे सुरक्षित मार्ग लेते हैं जिससे वे तूफानों और दुश्मनों से बचे रहें।